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शुतुरमुर्ग मानसिकता वाले लोगों द्वारा दिए गए प्रमाण पत्र से महिला के चरित्र का फैसला नहीं किया जा सकता: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

बिलासपुर:- छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण अवलोकन में कहा है कि यदि पत्नी पति की इच्छा के अनुसार सांचे में नहीं ढलती है तो यह बच्चे की कस्टडी को खोने का निर्णायक कारक नहीं होगा। जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस अग्रवाल की खंडपीठ ने कहा कि समाज के कुछ सदस्यों द्वारा दिया गया चरित्र प्रमाण पत्र, जो शुतुरमुर्ग मानसिकता वाले हो सकते हैं, एक महिला के चरित्र को तय करने का आधार नहीं हो सकते। इसके साथ, कोर्ट ने फैमिली कोर्ट, महासमुंद के एक आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें प्रतिवादी/पिता के पक्ष में 14 साल के बच्चे की कस्टडी दी गई थी और आदेश दिया गया था कि बच्चे की कस्टडी उसकी मां (अपीलकर्ता) को सौंप दी जाए।
मामला 
प्रतिवादी/पिता ने गॉर्डियंस एंड वार्ड एक्ट 1890 की धारा 25 के तहत एक आवेदन दायर कर बच्चे की कस्टडी की मांग की। बच्‍चे का नाम धीरज कुमार था, जो उस समय प्रतिवादी की तलाकशुदा पत्नी यानि अपनी मां की कस्टडी में था। महत्वपूर्ण रूप से, प्रतिवादी/पति और अपीलकर्ता/पत्नी के बीच विवाह को भंग करने वाली तलाक डिक्री में बच्चे की कस्टडी मां को दी गई थी। अपने आवेदन में, प्रतिवादी/पिता ने इस आधार पर बच्चे की कस्टडी की मांग की कि मां (अपीलकर्ता) एक अन्य पुरुष की संगति में है। वह एक अन्य पुरुष के साथ यात्रा करती है और उसकी पोशाक उपयुक्त नहीं रहती है। जो दर्शाता है कि उसने अपनी पवित्रता खो दी थी।

आगे यह तर्क दिया गया कि यदि बच्चे को उसकी कस्टडी में रखा जाता है, तो बच्चे के दिमाग पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। यह भी आरोप लगाया गया कि वह अवैध संबंध में थी, शराब, गुटखा का सेवन करती थी और सिगरेट पीती थी। मामले में जब वास्तव में पिता/प्रतिवादी को कस्टडी प्रदान की गई, तो अपीलकर्ता/माता हाईकोर्ट में चली गए। अपीलकर्ता/मां के वकील ने प्रस्तुत किया कि फैमिली कोर्ट का आदेश केवल तीसरे व्यक्ति के बयान पर आधारित था कि बच्चे का कल्याण पिता के पास होगा। आगे यह भी निवेदन किया गया कि कोरे मौखिक बयानों के अलावा तथ्य को स्थापित करने और पत्नी के चरित्र का अनुमान लगाने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं था।

टिप्पणियां दोनों पक्षों के गवाहों की ओर से दिए साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद न्यायालय ने कहा कि पिता की ओर से पेश गवाहों द्वारा दिए गए साक्ष्य उनके अपने विचारों पर आधारित थे। इस संबंध में, न्यायालय ने विशेष रूप से नोट किया कि यदि किसी महिला को नौकरी करने की आवश्यकता है, वह भी अपनी आजीविका के लिए, तो स्वाभाविक रूप से उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता होगी और केवल इस तथ्य के कारण कि उसे एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर आनाजाना आवश्यक है या पुरुष के साथ-साथ उसे काम करना पड़ता है, इससे यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि उसने अपनी पवित्रता खो दी है।
इसके अलावा, यह रेखांकित करते हुए कि केवल ऐसे कोरा मौखिक बयान कि वह शराब और धूम्रपान आदि का सेवन करती है, अदालत ने कहा, "जब महिला के चरित्र हनन के लिए हमला किया जाता है तो एक सीमा निर्धारित करना महत्वपूर्ण है। वादी के गवाहों के बयान से पता चलता है कि वे महिलाओं की पोशाक से काफी हद तक प्रभावित हैं क्योंकि वह जींस और टी-शर्ट पहनती है और इस तथ्य के साथ कि वह समाज के पुरुष सदस्यों के साथ आतीजाती है। हमें डर है कि अगर इस तरह की गलत कल्पना को स्पॉट लाइट दी जाती है तो महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक लंबी कठिन लड़ाई होगी। " कोर्ट ने आगे जोर देकर कहा कि अगर पूरे मामले में यह दिखाना था कि पत्नी के चरित्र के कारण, बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो सबूत की प्रकृति की डिग्री बहुत अधिक और गंभीर होनी चाहिए ताकि निरंतर एक तरह का व्यवहार स्‍थापित हो कि पत्नी बच्चे के हित के लिए हानिकारक होगी। इसलिए, रिकॉर्ड पर मौजूद सभी सबूतों पर विचार करते हुए, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अगर बच्चे को मां के संरक्षण में रखा जाता है, तो बच्चे का कल्याण सुनिश्चित होगा। तदनुसार, बच्चे की कस्टडी पिता को सौंपने के लिए निचली अदालत के निर्देश को रद्द कर दिया गया था। हालांकि, पिता को मुलाकात का अधिकार दिया गया था।
 केस शीर्षक- दीपा नायक बनाम पीताम्बर नई [FAM No. 35 of 2016]

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